ज़िंदगी कुछ इस रफ़्तार से चली
बचपन की वो खिलखलाहट
हर बात पर एक मासूम शरारत
कभी घर घर खेलना, कभी छुपा छुपी खेलना,
यूँ बिना मतलब इधर उधर दौड़ना
ना जाने नाम थे कितने
गुड़िया, बेबी, डॉल, छोटी, मोटू
हाँ हमने देखा सब कुछ ख़त्म होते हुए.
अब तो ज़िंदगी जैसे पलट ही गयी,
खिलखिलहट के नाम पर एक हल्की हँसी है
हर बात ,हर काम में एक जिम्मेदारी है
ज़िन्दगी की जंग हर कदम पर जारी है
अब सोचता है दिल मेरा बस यह ही कि ....
घर घर खेलना कितना आसान था
पर एक आशियाना बनाना बहुत मुश्किल है
छुपा छुपी खेलते खेलते अब खुद से ही छुपने लगे है
ज़िन्दगी की दौड़ में यूँ ही दौड़ते हैं
काम और नाम के चक्कर में
अपनी सब पहचान खो देतें हैं
बचपन की मीठी यादें वो मस्तियाँ
जा जाने कहाँ हम छोड़ आए ,कब भूल जाए
न जाने यूँ ही कब इन यादों से हम जुदा हो जाए
चलो एक बार फ़िर से बचपन को जीते हैं
4 comments:
hey very neat!
i like the play of words...
Keep writing
hey nice blog. i read ur profile abt me.. i too love dancing :)
Hi Megha,
You have an interesting blog. Keep writing. Your kavitha was heartfelt.
great blog, made my heart sink while reading your poetry abt childhood, really touchy....
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